''ठंड से ठिठुरती जिँदगी मेँ''
सिर पर उसके छत नही,
तन डकने को वस्त्र नही,
सिसकाएँ कई बेगाने खोने बैठा है,
ठंड से ठिठुरती जिँदगी मेँ बस इस ठंड बीतने की राहे तकता है,
माँगता कुछ जिँदगी से ज्यादा नही, बस कुछ तन ओडने को लोई माँगता है,
बुढा हो चला है जीवन,
हाथ पैर नही चला पाता है ,
जिँदगी के इस उमर मेँ खुद को अकेला पाता है,
असहाय हो पडा इस तरह, कि कोई तो लोई तन पर डाल कर जाएगा,
संवेदनशून्य इस दुनिया मेँ कोई तो इंसानियत का पैकाम लाएगा, दो वक्त रोटी नही कम से कम एक पुरानी लोई तो देकर जाएगा,
''ठंड से ठिठुरती जिँदगी मेँ'' कोई तो ठंड से बचाएगा,
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